जिंदगी की डगर
बैवजह नहीं था कुछ भी,
समझ से परे भी नहीं था कुछ भी।
सोचता रहा मै हजारों बार,
बेवजह तो नहीं मिला होगा जन्म,
कुछ तो वजह दी होगी नीचे आने की।
कभी लगे जिंदगी अपनी सी,
कभी लगे जिंदगी पराई सी।
बैवजह नहीं था कुछ भी,
समझ से परे भी नहीं था कुछ भी।
जब मंजिल मिली,तो रास्ता खो गया।
जब रास्ता मिला ,तो अपनों का साथ ही खो गया।
जब अपने मिले ,तो मंजिल ही खो गयी।
बेवजह सी लगने लगी जिंदगी ,
अपनों के प्यार में ,,,,,,,,,,डूबती सी लगी जिंदगी।
बैवजह नहीं था कुछ भी,
समझ से परे भी नहीं था कुछ भी।
कुछ को तो मैं समझ सका,
रास्तों में उलझने लगी जिंदगी
कुछ तो वजह थी जिंदगी के इन सवलों की,
जिनको मैं नहीं समझ सका।
बैवजह नहीं था कुछ भी,समझ से परे भी नहीं था कुछ भी।
जो रखे अधिक चाहत ,वो बीच रास्तों में ही उलझ जाये कहता।
कहता है। जितेंद्र ब्रजवासी,
सुनो रे ध्यान लाये।
जो जावैं अपने को खोजने,उसे सब कुछ मिल जावैं।
बैवजह नहीं था कुछ भी,
समझ से परे भी नहीं था कुछ भी।
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